मुखौटे लेकर चलना हम में से कुछ की मजबूरी है तो कुछ के शौक। और कुछ की तो परवरिश ही ऐसे होती है जैसे वे महाभारत के कर्ण की तरह कवच और कुंडल के साथ जन्मे हो । नकली व्यवहार रूपी कवच जिसकी सीख उन्हें बाल्यावस्था से ही दी जाती है। मानो इसके बगैर जीवन चल ही सकता। उन्हें सिखाया जाता है कि जैसे अपने अंगों को ढँकने के लिए वस्त्रों की आवश्यकता होती है न बिलकुल उसी तरह से या उससे भी कहीं ज्यादा आवश्यक है एक प्लास्टिक की एक मुस्कुराहट जो उनके चेहरे पर सदा शोभायमान होती रहनी चाहिए वरना समाज उन्हें स्वीकारेगा नहीं।
दुनिया की चमक - दमक को ही असली जिन्दगी मान कर हम उसी में अपना अस्तित्व तलाशते हैं।हम वे हैं जिनका स्वयं से कभी साक्षात्कार हुआ ही नहीं है। वास्तव में हम कौन हैं हमें ज्ञात ही नहीं है। हम वे हैं जो खुद को धुरी की परिभाषा से सदा महिमामंडित करते हैं। जो 360°में अपने अहम के आसपास चक्कर काटते रहते हैं और आडंबर के दलदल में यूँ धंसते जाते हैं ज्यों फूलों के बीच भौंरा और दीपक की लौ के पास पतंगा, जिसका अंत निश्चित है। यूँ तो सबका अंत निश्चित है किन्तु कुछ लोग अपने लक्ष्य को जानकर इस दलदल से दूरी बनाकर चलते हैं कि कहीं कोई ऐसा छींटा न पड़ जाए जो उसके धवल चरित्र को दागदार कर दे..और कुछ को अपने जन्म लेने का असली कारण ही नहीं पता होता और जीवन का महत्व जाने बिना ही पशुओं की भाँति बिना कारण यूँ ही बस जीते चले जाते हैं।
हमें यह सोचना होगा कि क्या हर समय यह मुखौटा जरूरी है..... यह मनन का विषय है कि हमें यह अनमोल जीवन प्राप्त क्यों हुआ है... क्या इसे ऐसे ही बर्बाद कर देना सही रहेगा या इसे सफल बनाने के लिए कुछ बेहतरीन प्रयास करने होंगे....
सुधा सिंह व्याघ्र
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