देख दुर्दशा भारत माँ की,
शोणित धारा बहती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का
उठो सपूतों कहती है।।
इस स्वतंत्रता की खातिर,
वीरों ने जानें खोई हैं।
फिर भी भारतवर्ष की जनता,
चादर तान के सोई है ।।
भूली वाणी भी मर्यादा,
घात वक्ष पर सहती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का,
उठो सपूतों कहती है।।
स्वार्थ व्यस्त नेतृत्व में अपने
स्वप्न हिन्द के चूर हुए।
सत्ता और कुर्सी ने नीचे
दबने को मजबूर हुए।।
रच दो फिर से संविधान नव
पाँव तुम्हारे गहती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का
उठो सपूतों कहती है।।
कभी फाँकते रेती तपती,
गहन ठंड से ठरते हैं।
हम गद्दारों की खातिर ही,
वे सीमांत पे लड़ते हैं।।
है उनको यह ज्ञात देश की,
रज- रज कितनी महती है।
दूर करो फिर तिमिर देश का,
उठो सपूतों कहती है।।
सुधा सिंह 'व्याघ्र'
No comments:
Post a Comment