Saturday, August 22, 2020

उठो सपूतों


उठो सपूतों 

देख दुर्दशा भारत माँ की, 
शोणित धारा बहती है। 
दूर करो फिर तिमिर देश का 
उठो सपूतों कहती है।। 

इस स्वतंत्रता की खातिर, 
वीरों ने जानें खोई हैं।
फिर भी भारतवर्ष की जनता, 
चादर तान के सोई है ।। 
भूली वाणी भी मर्यादा, 
घात वक्ष पर सहती है। 
दूर करो फिर तिमिर देश का, 
उठो सपूतों कहती है।। 

स्वार्थ व्यस्त नेतृत्व में अपने 
स्वप्न हिन्द के चूर हुए। 
सत्ता और कुर्सी ने नीचे 
दबने को मजबूर हुए।। 
रच दो फिर से संविधान नव
पाँव तुम्हारे गहती है। 
दूर करो फिर तिमिर देश का 
उठो सपूतों कहती है।। 

कभी फाँकते रेती तपती, 
गहन ठंड से ठरते हैं। 
हम गद्दारों की खातिर ही, 
वे सीमांत पे लड़ते हैं।। 
है उनको यह ज्ञात देश की, 
रज- रज कितनी महती है। 
दूर करो फिर तिमिर देश का, 
उठो सपूतों कहती है।। 

सुधा सिंह 'व्याघ्र'

आऊँगा फिर से पास तेरे...


आऊँगा फिर से पास तेरे, 
मैं अभी जा रहा हूँ माता ।
खेलूँ मैं फिर से गोद तेरी, 
य़ह पल - पल मन है दुहराता।। 

1
अंतिम यात्रा पर मैं हूँ चला, 
चुकता हो कैसे ऋण तेरा । 
लहू की हर बूंद तुझे दे दी, 
बैरी ने आकर जब घेरा।। 

माँ महल दो महले ना चाहूँ, 
बस चाहूँ जन्मों का नाता। 
खेलूँ मैं फिर से गोद तेरी, 
य़ह पल - पल मन है दुहराता।। 

2

तेरी धूलि महके ज्यों चंदन, 
माँ कण-कण को तेरे वंदन। 
विख्यात हो बन फिर विश्व गुरू, 
हो जग में तेरा अभिनंदन।। 

ऐ जननी जन्मदात्री मेरी, 
तू ही पालक ,तू ही दाता। 
खेलूँ मैं फिर से गोद तेरी , 
य़ह पल- पल मन है दुहराता।। 

3
धारा गंगा यमुना की लिए, 
ध्वज हरदम तेरा लहराए। 
रण भेरी बजती रहे तेरी, 
भय से हर दुश्मन थर्राए।। 

तेरा चीर रहे उज्ज्वल चटख, 
हर वर्ण मुझे तेरा भाता ।
खेलूँ मैं फिर से गोद तेरी, 
य़ह पल - पल मन है दुहराता।। 



 सुधा सिंह 'व्याघ्र'