Monday, June 29, 2020

डरती हूँ कहीं सुबह न हो जाए

डरती हूँ कहीं सुबह न हो जाए

आज बहुत दिनों बाद एक ख्वाब आया था 
उस ख्वाब में मैंने अपना सुंदर सा घर सजाया था।
छोड़ आई थी मैं उस घर को
जिसके चम्मच पर भी मेरा नाम नहीं था 
पराए घर से आई थी तो 
वहाँ मेरा क्या ही होना था  
चम्मच न सही  किंतु
वहाँ और भी बहुत कुछ था मेरे लिए 

सजा कर रखे थे मेरी सास ने 
ढेर सारे ताने मेरे लिए 
एक अलमारी में बड़े करीने से 
जिन्हें वे रोज किश्तों में 
मुझे देती रही हैं ई एम आई की तरह
जैसे किसी कर्ज को चुका रही होती हैं
शायद अपनी थाती मुझे सौंप रही होती हैं

ससुर जी बेचारे ,
जैसे बँधी हुई सीधी सादी कोई गाय ज्यादा कुछ कह नहीं पाते 
बस ,पिताजी को केवल इतना ही बोल पाते हैं-
"देखो तो चाय कैसा बनाती है आपकी बेटी
शक्कर अलग से मंगानी पड़ती है
और खाने में न नमक न मसाला
समधि जी कुछ तो सिखा दिया होता।"

ननद रानी भी कितनी अपनी सी लगती हैं
जब तब मेरी लिपस्टिक और 
मेरी मनपसंद साड़ियों पर अपना अधिकार बताती है और जो मन भाता है उसे बिना पूछे ही ले जाती हैं।  "

मैं लौटी थी मायके भी
जिसे बचपन से अपना समझती रही
खेल रही थी मेरी भतीजी
मेरी बचपन की उसी गुड़िया से
जिस पर अब मेरा नहीं उसका अधिकार था और मैं थी कोई बाहरी मेहमान जिसका कुछ दिनों में कहीं लौट जाना तय था।

आज सपना ही सही, 
पर कुछ तो है जो अपना है
डरती हूँ कहीं सुबह न हो जाए
औऱ मेरा ख्वाब मुझसे रूठ न जाए।
 
सुधा सिंह व्याघ्र 




6 comments:

  1. ओह्ह दी बेहद मार्मिक सृजन।
    बहुत प्यार से एक प्रश्न मन को भेद गया
    एक औरत का अपना क्या है?

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  2. धन्यवाद प्रिय श्वेता

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  3. बहुत अच्छा लिखतीं हैं आप। सादर

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    1. धन्‍यवाद अभिषेक जी 🙏 🙏

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  4. सच यह आपकी बहुत भीतर तक मन छूने वाली जीवन की सच्चाई के कोने कोने को टटोलने वाली एक बहुत ही सशक्त ह्रदय ग्राही रचना है |बहुत बहुत बधाई | मन से शुभ कामनाएं |

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय आलोक जी 🙏

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